Lekhika Ranchi

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काजर की कोठरी--आचार्य देवकीनंदन खत्री

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इतना कहकर बाँदी हरनंदन के मोढ़े पर दबाव डालती हुई उठ खड़ी हुई और कमर को बल देती हुई कोठरी के बाहर निकल गई।

 थोड़ी देर तक हमारे हरनंदन बाबू को अपने विचार में डूबे रहने का मौका मिला और इसके बाद अपनी अम्माजान को लिए हुए बाँदी आ पहुँची।
 बाँदी हरनंदन से कुछ दूर हटकर बैठ गई और बुढ़िया आफत की पुड़िया ने इस तरह बातें करना शुरू किया-

बुढ़िया: खुदा सलामत रखे, आले-आले मरातिब हों, मैं तो दिन-रात दुआ करती हूँ, कहिए क्या हुक्म है?

हरनंदन : बड़ी बी ! मैं तुमसे एक बात कहा चाहता हूँ।

बुढ़िया : कहिए, कहिए, क्या बाँदी से कुछ बेअदबी हो गई है?

हरनंदन : नहीं-नहीं, बाँदी बेचारी ऐसी बेअदब नहीं है कि उससे किसी तरह का रंज पहुँचे। मैं उससे बहुत खुश हूँ और इसीलिए मैं उसे हमेशा अपने पास रखना चाहता हूँ।

बुढिया : ठीक है, अगर आप ऐसा अमीर इसे नौकर न रखेगा तो रखेगा कौन? और अमीर लोग तो ऐसा करते ही हैं! मैं तो पहिले ही सोचे हुए थी कि आप ऐसे अमीर उठाईगीरों की तरह चूल्हा रखना पसंद न करेंगे।

हरनंदन : मैं नहीं चाहता कि जिसे मैं अपना बनाऊँ उसे दूसरे के आगे हाथ फैलाना पड़े या कोई दूसरा उसे उँगली भी लगावे।

बुढ़िया : ठीक है, ठीक है, भला ऐसा कब हो सकता है? जब आपकी बदौलत मेरा पेट भरेगा तो दूसरे कमबख़्त को आने ही क्यों दूँगी। आप ही ऐसे सर्दार की खिदमत में रहने के लिए. तो हजारों रूपै खर्च करके मैंने इसे आदमी बनाया है, तालीम दिलवाई हैं, और सच तो यों है कि यह आपके लायक है भी। मैं बड़े तरद्दुद में पड़ी रहती थी और सोचती थी कि यह तो दिन -रात आपके ध्यान में डूबी रहती है और मैं कर्ज के बोझ से दबी जा रही हूँ, आखिर काम कैसे चलेगा? चलो अब मैं हलकी हुई, आप जानें और बाँदी जाने, इसकी इज्जत-हुरमत सब आपके हाथ में है। |

हरनंदन : भला बताओ तो सही कितने रूपै महीने में तुम्हारा अच्छी तरह गुजर हो सकता है? :

बुढिया : ऐ हजूर ! भला मैं क्या बताऊँ? आपसे कौन-सी बात छिपी हुई है? घर में दस आदमी खानेवाले ठहरे, तिस पर महँगी के मारे नाकों में दम हो रहा है। हाथ का फुटकर खर्च अलग ही दिन-रात परेशान किए रहता है। अभी कल की बात है कि छोटे नवाब साहब इसे दो सौ रूपै महीना देने को राजी थे, मगर नाच -मुजरा सब बंद करने को कहते थे, मैंने मंजूर न किया क्योंकि नाच -मुजरे से सैकड़ों रुपए आ जाते हैं तब कहीं घर का काम मुश्किल से चलता है, खाली दो सौ रुपए से क्या हो सकता है।

हरनंदन : खैर नाच-मुजरा तो मेरे वक्त में भी बंद करना ही पड़ेगा मगर आदत बनी रहने के खयाल से खुद सुना करूँगा और उसका इनाम अलग दिया करूँगा। अभी तो मैं इसके लिए चार सौ रुपए महीने का इंतजाम कर देता हूँ, फिर पीछे देखा जाएगा.। मैंने अपना इरादा और अपने बाप का हाल भी बाँदी से कह दिया है, तुम सुनोगी तो खुश होवोगी। (बीस अशरफियाँ बुढ़िया के आगे फेंककर) लो इस महीने की तनखाह पेशगी दे जाता हूँ। अब तुम्हें कोई दूसरा आलीशान मकान भी किराए ले लेना चाहिए जिसका किराया मैं अलग से दूँगा।

बुढ़िया : (अशर्फियों को खुशी-खुशी उठाकर) बस-बस-बस, इतने में मेरे घर का खर्च बखूबी चल जाएगा, नाच-मुजरे की भी जरूरत न रहेगी। बाकी रहा गहना-कपड़ा, सो आप जानिए और बाँदी जाने, जिस तरह रखिएगा रहेगी। अब मैं एक ही दो दिन में अपना और बाँदी का गहना बेचकर कर्जा भी चुका देती हूँ, क्योंकि ऐसे सर्दार की खिदमत में रहनेवाली बाँदी के घर किसी तगादगीर का आना अच्छा नहीं है और मैं यह बात पसंद नहीं करती।

इतना कहकर बुढ़िया उठ गई और हरनंदन बाबू ने उसकी आखिरी बात का कुछ जवाब न दिया।

बुढिया के चले जाने के बाद घंटे-भर तक हरनंदन बाँदी के बनावटी प्यार और नखरे का आनंद लेते रहे और इसके बाद उठकर अपने डेरे की तरफ रवाना हुए।

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